सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा।
अहं करोमीति वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः॥
भगवान श्रीराम वनवासमे गये तो दूसरी रात्रीमे शृंगवेरपूरमे विश्राम किया. गुहने बहुत आदर-सत्कार किया. रात्रीके समय जब श्रीरामजी सो गये तब लक्ष्मणजी धनुष्य-बाण लेकर पहरेपर बैठ गये. वहा आपस मे वार्ता हो रही थी. निषादराजने कहा- देखो! उस कुटिल कैकेयीने रामजी और सीताजी को सुखके अवसर पर दुःख दे दिया.
तब लक्ष्मणजीने उपरोक्त श्लोक कहा.
इस श्लोक का अर्थ है कि सुख-दुःख का देनेवाला दूसरा कोई नही है. सुख दुःख दूसरा देता है यह मानना कुबुद्धी है.
‘दुःख तो दूसरा देता है और सुख मै स्वयं कर लेता हूं ‘ यह मानना झूठा अभिमान है . सभी मनुष्य अपने कर्म-सूत्रसे बंधे हुवे है. सभी अपने किये हुवे कर्मो का फल भोगते है.
सीधी बात तो यही है कि सुख-दुःख अपने कर्मो का ही फल-भोग है, पर वास्तवमे सुखी और दुःखी होना कर्मो का फल नही है; यह तो मूर्खताका फल है .
प्रायः लोग कहते है- “जिसके पास बाहरकी सामग्री बहुत है तथा जिसको अनुकूल परिस्थिती प्राप्त है- वह बहुत सुखी है.”
बडा घर है, पासमे रुपये बहुत है, कुटुंब अनुकूल है; शरीर निरोग है; समाजमे सब तरहसे इज्जत-प्रतिष्ठा है तो वह सुखी समझा जाता है; और जिसके पास अन्नका अभाव है; संतान नही है; शरीर रोगी है; रहनेके लिये घर नही है, पासमे पैसा नही है, तो वह मनुष्य बहुत दुःखी कहा जाता है.
सुख-दुःखकी एक परिभाषा यह हुई कि सुख नाम हुवा बाहरकी अनुकूल सामग्री का और दुःख नाम हुवा बाहरकी सामग्रीके अभाव का.
दूसरी वास्तविक परिभाषा सुख-दुःखकी यह है कि जिसके मन मे हर समय प्रसन्नता ‘रहती है-वही सुखी है.
चाहे उसके पास बाहरी सामग्री कम है अथवा नही है या बहुत अधिक है, पर जिसके मनमे चिंता-फिकर नही है, वही सुखी है.
बाहरकी सामग्री अत्यधिक मात्रा मे रहते हुवे भी हृदय जलता है, मनमे दुःख-संताप है, तो वह दुःखी ही है
स्वामी रामसुखदासजी के प्रवचनोसे .
इसका आगेका भाग अगले ब्लॉगमे पढिये.
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